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१० दिसंबर, १९६९
प्रगति दानवाकार पग ले रही है -- वह मकानको जरा हिला तो देती है, पर बढ़ रही है दानवाकार कदमोंसे । और 'क' जैसे कुछ लोगोंके लिये यह बहुत सचेतन है । बहुत समय पहले उसके घुटनेमें कुछ चोट लग गयी थी और यह पैर दूसरे पैरसे ज्यादा कमजोर है । उसके खुल जानेकी संभावना थी । उसने देखा कि जब वह उचित वृत्तिमें रहती थी तो कुछ न होता था, ऐसा लगता था कि तकलीफ बिलकुल चली गयी । जैसे ही वह सामान्य चेतनामें जा गिरती कि बीमारी वापिस आ जाती थी... । उसे ऐसे अनगिनत अनुभव हुए । मुझे यह बात बहुत रोचक लगी । और बातें भी ।
और यह सचमुच रोचक है । यह सचमुच रोचक है क्योंकि इसमें बिलकुल स्वच्छ और प्रत्यक्ष स्पष्टता है, क्योंकि यह पूरी तरहसे चेतनाकी एक अवस्था है । जब तुम्हारे अंदर चेतना हो, ( यानी, चेतना अधिकाधिक सत्य होती जाय -- कोई अवरुद्ध चीज नहीं, बल्कि आरोहण करती हुई चेतना), जब तुम उसके अंदर हो तो हर चीज बिलकुल ठीक होती है, लेकिन जैसे ही तुम पुरानी प्रगतिशुन्य धीरे-धीरे लगभग अदृश्य प्रगति करनेवाली चेतनामें जा गिरते हों वैसे ही अव्यवस्था लौट आती हैं । और यह मानों बहुत हीं स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूपमें दिया गया पाठ है ।
यह सचमुच रोचक है ।
और शरीर सीखता चला जाता है । वह तेजीसे सीखता है ।
( मौन)
निश्चय ही जब मनुष्य औरोमें पूर्णता पानेके लिये प्रतीक्षा करना छोड़कर स्वभावत: अपने-आपको पूर्ण करनेकी ओर मुडेगा तो यह एक वहां कदम होगा... । यह उलटाव सच्ची प्रगतिका सच्चा आधार है । पहन्ना मानव सहजवृति है. यह परिस्थितियोंका दोष है, व्यक्तियोंको दोष है, दोष... । वह ऐसा है, यह वैसा है. और यह बात अनंतकाल चलती रहती है । पहला कदम, सबसे पहला कदम है यह कहना : अगर मैं वैसा होऊं जैसा मुझे होना चाहिये या यह शरीर ऐसा हो जैसा होना चाहिये, तो इसके लिये सब कुछ ठीक हो जायेगा । अगर प्रगति करनेके लिये तुम दूसरोंके प्रगति करनेकी प्रतीक्षा करोगे तो तुम्हें अनिश्चित
कालतक प्रतीक्षा करनी होगी । यह पहली बात है जिसे सब जगह फैला देना चाहिये । कभी दूसरोंको या परिस्थितियोंको दोष न दो, क्योंकि परिस्थितियों चाहे जैसी क्यों न हों, चाहे बुरी-सें-बुरी दीखनेवाली परिस्थितियां हों, अगर तुम सत्य वृत्ति रखे, अगर तुम्हारे अंदर सत्य चेतना हों तो तुम्हारी आंतरिक प्रगतिके लिये उनका कोई महत्व न होगा, कोई महत्व न होगा - मैं यह कहती हू और इसमें मृत्युको भी गिन लेती हू । वास्तवमें यह सीखनेके लिये पहला पाठ मालूम होता है ।
( मौन)
श्रीअर्रावदने लिखा है (मै भावानुवाद करती हू) कि पापकी धारणा प्रगतिको तेज करने.के लिये लायी गयी थीं और तुरंत (हंसते हुए) मनुष्य- ने और सबके अंदर पाप देखा - लेकिन स्वयं अपने अंदर कभी नहीं । श्रीअरविंदका वाक्य बड़ा मनोहर है, लेकिन मुझे याद नहीं ।१
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